'श्रीरामचरितमानस' के दोहों और चौपाइयों का मंत्र के रूप में प्रयोग काफी पहले से किया जाता रहा है. ऐसी मान्यता है कि इस ग्रंथ में जो दोहे या चौपाई जिस प्रसंग में लिखे गए हैं, उससे मिलती-जुलती परिस्थिति पैदा होने पर उन पंक्तियों के ध्यान-स्मरण या जप से साधकों का कल्याण होता है.
मानस में मनचाहा जीवनसाथी पाने का भी बहुत सुंदर प्रसंग है. उन चौपाइयों का मंत्र के रूप से पूरी आस्था के साथ ध्यान व जप करने से कामना की पूर्ति होती है. इतना जरूर है कि कामना सच्ची और पवित्र होनी चाहिए, वह तभी फलदायी होती है. मंत्र इस प्रकार है:
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी।।
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।
प्रसंग बालकांड का है. राजा जनकजी प्रतिज्ञा करते हैं कि वे अपनी पुत्री सीताजी का विवाह उससे करेंगे, जो शिव के भारी धनुष को उठाकर तोड़ दे. सीताजी का मन श्रीराम के प्रति आकर्षित हो चुका था. वे चाहती थीं कि उनके पिता की प्रतिज्ञा बेकार न जाए. साथ ही उनका विवाह तेजस्वी व हर तरह से श्रेष्ठ राजकुमार श्रीराम से ही हो. परंतु उनके मन में यह संदेह था कि शायद ये सुकुमार शिव के भारी धनुष को उठा न सकें. ऐसे में उनका मन व्याकुल हुआ जा रहा था.
तब सीताजी धीरज रखकर अपने हृदय में यह विश्वास ले आईं, ‘अगर तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों में मेरा मन वास्तव में रम गया है, तो सबके हृदय में निवास करने वाले श्रीरामजी उन्हें जीवनसंगिनी जरूर बनाएंगे. जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है.’